Ebola VIRUS INTERESTING FACT पैर पसार रहा इबोला वायरस?
क्या बेचकर हम खरीदे हैं फुर्सत…
है जिंदगी…
सब कुछ तो गिरवी पड़ा है
जिम्मेदारी के बाजार में!
अफ्रीकी देश गिनी में फिर से पैर पसार रहा इबोला वायरस?
अफ्रीकन देश 'गिनी' के पब्लिक हेल्थ डिपार्टमेंट ने बताया है कि इबोला महामारी का एक और चैप्टर शुरू हो गया है.
ये क़िस्सा शुरू हुआ सितंबर 1976 में. बेल्ज़ियम में ऐंटवप नाम का एक शहर है. यहां एक सदी पुराना रिसर्च संस्थान है- प्रिंस लियोपोल्ड इंस्टिट्यूट ऑफ़ ट्रॉपिकल मेडिसिन. शॉर्ट में इसको कहते हैं- ITM. सितंबर 1976 में एक रोज़ इस इंस्टिट्यूट को एक स्पेशल पार्सल मिला. एक गहरे नीले रंग का थर्मस. वैसा ही ठंडा-गर्म थर्मस, जिसके भीतर हम दूध, चाय, सूप, कॉफ़ी या जूस जैसे लिक्विड रखते हैं. मगर उस नीले थर्मस में ये चीजें नहीं थीं. उसके भीतर थे बर्फ़ के कुछ टुकड़े. जो पिघलकर पानी बन गए थे. उसी पिघले हुए बर्फ़ में तैर रहा था मेन पार्सल. कुछ छोटी-छोटी शीशियां, जिनमें खून भरा था.
किसने भिजवाया था ये अज़ीब सा पार्सल? क्या कहानी थी उन खून से भरी शीशियों की? इस पार्सल का एक बेहद क्रूर और जानलेवा बीमारी से क्या संबंध है? अफ्रीका के एक देश में फैल रही एक नई महामारी से क्या कनेक्शन है इसका, विस्तार से बताते हैं.
Prince Leopold Institute Of Tropical Medicine
वो पार्सल बहुत दूर अफ्रीका से बेल्ज़ियम आया था. तब अफ्रीका में ‘ज़ाइर’ नाम का एक देश हुआ करता था. आज इसी ज़ाइर को हम ‘डेमोक्रैटिक रिपब्लिक ऑफ़ कॉन्गो’ पुकारते हैं. उन दिनों बेल्ज़ियम के एक डॉक्टर ज़ाइर में पोस्टेड थे. उनकी एक पेशेंट थी, किसी चर्च की नन. डॉक्टर पता ही नहीं लगा पा रहे थे कि उस नन को क्या बीमारी हुई है. बस इतना मालूम था कि ये रहस्यमय बीमारी ज़ाइर के और भी कुछ लोगों को हुई है. कई तो मर भी गए हैं. बीमारी की पहचान किए बिना इलाज़ कैसे होता? इसीलिए उस डॉक्टर ने नन का ब्लड सैंपल ITM भिजवाया था.
यहां ITM में जब शोधकर्ताओं ने उस ब्लड की कोशिकाओं को माइक्रोस्कोप के नीचे रखकर देखा, तो हैरान रह गए. उन्हें दिखा, एक बड़ा सा विषाणु. देखने में किसी बल्ब के फिलामेंट जैसा. देखकर लगता था, सेवई की कोई लंबी सी लड़ी हो. ये विषाणु अपने आकार-प्रकार में एक हालिया खोजे गए ‘मारबर्ग’ वायरस से मेल खाता था. इस वायरस की कहानी भी अफ्रीका से जुड़ी थी.
मारबर्ग वायरस की कहानी
ये बात है 1967 की. एक रोज़ युगांडा से निकले दो जहाज़ जर्मनी के दो शहर- फ्रेंकफर्ट और मारबर्ग पहुंचे. ये दोनों जहाज़ अपने साथ लाए थे, युगांडा के बंदर. इन बंदरों को मेडिकल रिसर्च की मंशा से मंगवाया गया था. मगर इनके जर्मनी पहुंचने के बाद एक अजीब सी चीज होने लगी. यहां जिन प्रयोगशालाओं में इन बंदरों पर रिसर्च हो रही थी, वहां काम करने वाले लोग एक अज्ञात बीमारी की चपेट में आने लगे. ऐसे करीब 32 केस सामने आए. जिनमें से सात की मौत हो गई. रिसचर्स को पता चला, ये सब एक नए वायरस संक्रमण का शिकार हुए हैं. चूंकि इसका पहला केस मारबर्ग शहर में मिला था, इसीलिए इसका नाम भी मारबर्ग वायरस रख दिया गया.
ITM के वैज्ञानिकों को थर्मस में आए उन ब्लड सैंपल्स के भीतर मारबर्ग जैसा ही एक विषाणु दिखा था. पहले उन्हें लगा, ये भी मारबर्ग ही है. मगर काफी खोजबीन के बाद ये अनुमान ग़लत निकला. पता चला, वो एक बिल्कुल नए टाइप का वायरस था. ऐसा वायरस, जिसे दुनिया पहली बार देख रही थी.
Ebola
इबोला वायरस.
कौन सा वायरस था ये?
इसका पहला केस सामने आया था ज़ाइर के ‘यामबुकु’ गांव में. इसके पास से एक नदी बहती है. स्थानीय लोग इस नदी को ‘लेगबाला’ बुलाते हैं. करीब 250 किलोमीटर लंबी ये लेगबाला नदी दुनिया की सबसे गहरी नदी कॉन्गो रिवर की सहायिका है. इसी लेगबाला नदी का एक और नाम है- इबोला. इसी इबोला नदी के नाम पर वैज्ञानिकों ने उस विषाणु को नाम दिया- इबोला वायरस.
आप इस वायरस से वाकिफ़ होंगे. 2014 से 2016 के बीच इसने अफ्रीकी देशों में बड़ा तांडव मचाया था. 1976 से अब तक के इतिहास में ये इस वायरस से उपजी सबसे बड़ी महामारी थी. कैसे हुई थी इसकी शुरुआत? अफ्रीका में गिनी नाम का एक देश है. यहां ‘मेलिआनडोउ’ नाम का एक गांव है. इस गांव के बाहर एक बड़ा सा पेड़ था. इसके भीतर बहुत बड़ा सा एक कोटर था. इस कोटर के भीतर चमगादड़ों की एक बस्ती थी. गांव के बच्चे अक्सर इस पेड़ पर चढ़कर खेला करते. खेल-खेल में बच्चे कई बार उस कोटर के भीतर हाथ डालकर चमगादड़ भी पकड़ते. उनमें से कुछ चमगादड़ों को लकड़ी की छोटी लकड़ी पर बांध लेते और आग में उन्हें भूनकर खाते.
गांव में एक डेढ़ साल का बच्चा था- एमिले ओउआमोउनो. गांव के बाकी बच्चे भी खेलकूद के लिए एमिले को उस पेड़ के पास लाते थे. दिसंबर 2013 की बात है. एक रोज़ एमिले खेलकूद के बाद अपने घर लौटा. शाम होते-होते उसे तेज़ बुख़ार चढ़ गया. लोगों ने सोचा, हद-से-हद मलेरिया हुआ होगा. मगर एमिले का शरीर किसी भट्ठी की तरह तपने लगा. उल्टियां होने लगीं. वो मर गया. कुछ रोज़ बाद इसी तरह उसकी बहन भी मर गई. फिर मां, दादी, सब मर गए. इनके झाड़फूंक के लिए आई गांव की एक और महिला भी मर गई. जिस नर्स ने इनका इलाज़ किया था, वो भी मर गई.
इसी घटना के साथ-साथ गांव में एक और बात हुई. वो पेड़ याद है, जिसके भीतर चमगादड़ों की कॉलोनी थी. उस पेड़ के ऊपर मधुमक्खी का एक बड़ा सा छत्ता था. एक रोज़ किसी ग्रामीण की उसपर नज़र पड़ी. शहद निकालने के लिए उसने मधुमक्खी के छत्ते में आग लगा दी. पूरे पेड़ ने आग पकड़ ली. उस जलते हुए पेड़ से चमगादड़ों की बारिश होने लगी. उसकी कोटर में सोये चमगादड़ जलकर नीचे झरने लगे. ग्रामीणों ने अपने हाथ से मरे हुए चमगादड़ों को इकट्ठा किया. 45-45 किलो वाली चावल की बोरियों को मिलाएं, तो करीब छह बोरियों जितने चमगादड़ जमा हुए. ग्रामीणों ने उन्हें गांव के ही पास एक जगह फेंक दिया.
तब कोई नहीं जानता था कि उस पेड़ के इर्द-गिर्द शुरू हुई कहानी एक भीषण महामारी का रूप लेने जा रही है. जंगल की आग जैसी रफ़्तार से पूरा गांव एमिले वाली बीमारी की चपेट में आ गया. हर घर से लाशें उठने लगीं. 60 दिनों के भीतर ये बीमारी पूरे गिनी में फैल चुकी थी. ये इतनी संक्रामक थी कि अप्रैल 2014 आते-आते गिनी के अलावा डेमोक्रैटिक रिपब्लिक ऑफ़ कॉन्गो, रिपब्लिक ऑफ़ कॉन्गो, युगांडा, लाइबेरिया, साउथ सूडान, सियरा लियॉन, गेबन, आइवरी कोस्ट, नाइजीरिया और दक्षिण अफ्रीका इबोला महामारी की चपेट में आ चुके थे.
इस महामारी के बारे में एक्सपर्ट्स को क्या पता चला? देखिए, इबोला फिलोवायरस समुदाय का एक विषाणु है. ये विषाणु ‘फिलोवाइरिडी’ नाम की एक वायरस फैमिली का हिस्सा हैं. ये वायरस इंसान में ‘हेमेरॉज़िक फीवर’ पैदा करते हैं. हेमेरॉज़िक, मतलब इंसान के शरीर के भीतर ब्लीडिंग होना. जैसे, आपने ब्रेन हेमरेज़ सुना होगा. उसका मतलब होता है, मस्तिष्क या इसके आसपास के हिस्से में अंदरूनी ब्लीडिंग होना. इबोला विषाणु का भी ऐसा ही असर होता है. इसमें इंसान को बहुत तेज़ बुख़ार आता है. फिर उल्टी, दस्त जैसे लक्षण उभरते हैं. शरीर में अंदरूनी ब्लीडिंग होने लगती है. संक्रमित लोगों में से करीब 50 से 90 पर्सेंट मारे जाते हैं.
कैसे फैलता है इबोला?
ये इंसानों से इंसानों में फैलता है. ये किसी संक्रमित इंसान के बॉडी फ्लूड- जैसे पेशाब, थूक, पसीना, उल्टी, मां का दूध और यहां तक कि वीर्य के सीधे संपर्क में आने से फैलता है. अगर शरीर में कोई जख़्म है या त्वचा कहीं से कट गई है, तो उस रास्ते भी वायरस शरीर में प्रवेश कर सकता है. ये आंख, पलक, नाक और मुंह के रास्ते भी शरीर में एंट्री ले सकता है. किसी संक्रमित इंसान के संपर्क में आई सतह या सामान, जैसे- चादर, कपड़ा, बैंडेज़, सुई या किसी मेडिकल उपकरण से भी ये इन्फ़ेक्शन हो सकता है. यहां तक कि इबोला संक्रमण से मरे किसी शख्स के संपर्क में आने पर भी व्यक्ति संक्रमित हो सकता है.
ये तो हुई इंसानों से इंसानों में फैलने वाले संक्रमण की बात. अब बड़ा सवाल है कि ये विषाणु इंसानों तक कैसे पहुंचता है? यही सवाल इबोला की सबसे बड़ी मिस्ट्री है. कैसे, बताते हैं. वायरस अपने आप बहुत वक़्त तक सर्वाइव नहीं कर सकता. न ही ये अपने आप अपनी कॉपीज़ बना सकता है. इसके लिए इसे एक ज़िंदा जीव की ज़रूरत पड़ती है, जिसे वायरस का होस्ट या मेजबान कहते हैं. ये कोई जानवर, या पौधा, या फंगस या माइक्रोब, कुछ भी हो सकता है. कोई भी ऐसी लिविंग संरचना, जिसकी कोशिका मशीनरी वायरस के रिप्रॉडक्शन में मुफ़ीद हो. इबोला उस श्रेणी का वायरस है, जो अपने मेजबान जीव के भीतर रहते हैं और गाहे-बगाहे ही इंसानों के भीतर जंप मारते हैं. ऐसे वायरस ‘ज़ूनोसिस’ कहलाते हैं. ज़ूनोसिस माने ऐसा वायरस, जो किसी जानवर से जंप करके इंसानों में पहुंचता हो.
इबोला का केस बहुत क्यूरियस है
इसलिए कि 1976 में पहली बार खोजे जाने के बाद से अब तक ये कन्सिस्टेंटली मौजूद नहीं रहा. 1977 के बाद करीब 17 साल पूरी तरह से गायब रहने के बाद ये 1994 में सामने आया. फिर 1996 से सन् 2000 तक ये फिर गायब हो गया. यही इसकी मोडस ऑपरेंडी है. कई साल तक गायब रहना. फिर एकाएक किसी एक सिंगल आदमी के रास्ते सिर उठाना और देखते-ही-देखते बड़े इलाके में फैल जाना. कइयों की जान लेना. कइयों को मौत के मुंह तक धकेलना और अचानक ही फिर से गायब हो जाना.
इस छुपने और दोबारा उभरने के बीच ये वायरस कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी प्रजाति के जीवों में छुपकर बैठा रहता होगा. ये जीव इन वायरसों के लिए स्विस बैंक की तरह होंगे. मतलब, इन्हें अपने भीतर ज़िंदा रखने वाले संग्रह कोष. जिन्हें विज्ञान की भाषा में ‘रेज़र्वोर होस्ट’ कहा जाता है. जैसे, येलो फीवर के रेज़र्वोर होस्ट हैं बंदर. निपा और हेंड्रा वायरस के होस्ट हैं एशियाई फ्रूट बैट्स.
Coorna Outbreak
इबोला के बारे में अभी तक कुछ साफ़-साफ़ नहीं पता चल सका है.
मगर इबोला का रेज़र्वोर होस्ट कौन है?
जब वो इंसानों को संक्रमित नहीं कर रहा होता, तब किस अड्डे पर छुपकर बैठा रहता है? इन सवालों का आज तक कोई पक्का जवाब नहीं मिला. साइंटिस्ट्स को पहले लगा कि शायद अफ्रीकी जंगलों में रहने वाले चिंपैंज़ी या गोरिल्ला इबोला के होस्ट ऐनिमल हैं. मगर ये अनुमान ग़लत निकला. क्योंकि इबोला से इनकी भी जान जाती है. अगर ये होस्ट होते, तो इबोला से मरते नहीं. फिर एक्सपर्ट्स को लगा, शायद फ्रूट बैट्स इबोला के भी मेजबान हैं. मगर ये केवल अनुमान है. पक्का जवाब नहीं.
इबोला महामारी के अब तक के सारे एपिसोड्स, हर बार किसी एक इंसान से शुरू होते हैं. माने एक संक्रमित इंसान से शुरू होकर ये इन्फ़ेक्शन महामारी बन जाता है. और वो शुरुआती मरीज़ कौन होता है? ऐसा कोई आदमी, जिसने या तो किसी जंगली जीव को मारकर उसका मांस निकाला हो. या फिर, किसी ऑलरेडी मरे हुए जंगली जीव का मांस निकाला हो. यानी, वो ऐसे जंगली जीव के सीधे संपर्क में आया, जो पहले से ही इबोला से इन्फेक्टेड था.
अफ्रीका में जंगली जीवों के शिकार और मरे हुए जंगली जीवों को खाने की परंपरा रही है. ये बहुत ख़तरनाक है. क्योंकि इसके मार्फ़त वाइल्ड लाइफ़ में पल रहे कई ख़तरनाक वायरस इंसानों में जंप कर सकते हैं. जैसे, इबोला. और अब तक की जानकारी के मुताबिक, कोरोना वायरस भी. इसीलिए हेल्थ एक्सपर्ट्स जंगली जीवों के शिकार और उनके मांस खाने पर कड़े प्रतिबंध लगाने की मांग करते हैं. अफ्रीका के कई देशों में ऐसा प्रतिबंध लग भी चुका है. बावजूद इसके लोग नहीं मानते. और कई बार अनजाने में मांस के साथ-साथ ख़तरनाक महामारियां भी ले आते हैं.
हम आज क्यों बता रहे हैं ये सब?
इसलिए कि अफ्रीका से एक चिंताजनक ख़बर आई है. 14 फ़रवरी को अफ्रीकन देश ‘गिनी’ से एक बड़ी ख़बर आई. यहां के पब्लिक हेल्थ डिपार्टमेंट ने ऐलान किया कि इबोला महामारी का एक और चैप्टर शुरू हो गया है. इस नए अध्याय में अब तक सात केस सामने आए. इनमें से तीन की मौत हो चुकी है. हो सकता है, आपको सात की संख्या सुनने में कम लगे. मगर याद रखिए, इबोला बेहद संक्रामक है.
Ebola Virus Latest Outbreaks
दिसंबर 2013 में एक बच्चे एमिले ओउआमोउनो से शुरू होकर ये कुछ ही दिनों में पूरे अफ्रीका में फैल गया था. 11 हज़ार से ज़्यादा लोग मारे गए थे.
इबोला के लक्षण?
इबोला के लक्षण उभरने में दो से 21 दिन का समय लग सकता है. इसके लक्षण बुख़ार, सिर दर्द, मांसपेशियों और जोड़ों का दर्द, गले की ख़राश, डायरिया और उल्टी होते हैं. कमोबेश ऐसे ही लक्षण मलेरिया जैसी बीमारियों के भी हैं. अफ्रीकी देशों में मलेरिया बहुत कॉमन है. ऐसे में कई बार लोग इबोला को मलेरिया या कोई और बीमारी समझ लेते हैं. ऐसे में ये बता पाना कि गिनी में अब तक कितने लोग संक्रमित हो चुके होंगे, बहुत मुश्किल है.
एक और बड़ी चिंता है. यहां बीमारी की झाड़-फूंक करवाने का भी प्रचलन है. 2014 में जब महामारी फैली थी, उस वक़्त एक झाड़-फूंक वाली की बड़ी भूमिका सामने आई थी. वो झाड़-फूंक वाली गिनी से जुड़ी सीमा के पास सियरा लियोन में रहती थी. इबोला के कई मरीज़ बीमारी को बुरी शक्ति का साया समझकर उसके पास झाड़-फूंक के लिए आते थे. इस चक्कर में वो ख़ुद भी संक्रमित हुई और मर गई. उसके अंतिम संस्कार में ख़ूब भीड़ जुटी. ये जुटान संक्रमण फैलाने का बड़ा ज़रिया बना.
अफ्रीकी देशों में अब भी आबादी का एक बड़ा हिस्सा दवाओं और डॉक्टरों पर यकीन नहीं करता. अंधविश्वास के चक्कर में वो डॉक्टरों के पास न जाकर तंत्र-मंत्र का सहारा लेते हैं. इन वजहों से महामारी को काबू करना मुश्किल हो जाता है. गिनी में हेल्थ एक्सपर्ट्स संक्रमित लोगों की पहचान में जुट गए हैं. कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग की जा रही है. एक नया इबोला ट्रीटमेंट सेंटर भी बनाया गया है. मगर गिनी की हालत बहुत ख़राब है. वो दुनिया के सबसे गरीब देशों में है. संसाधन भी नगण्य हैं. ऊपर से वहां पहले से ही तीन महामारियां फैली हुई हैं. एक कोरोना. दूसरा, येलो फीवर. तीसरा, मीज़ल्स. और चौथा, इबोला.
गिनी अकेला अफ्रीकन देश नहीं!
कॉन्गो का भी यही हाल है. वहां अगस्त 2018 से इबोला की दूसरी खेप आई. संक्रमित लोगों में से तकरीबन दो-तिहाई मारे गए. बहुत कोशिशों के बाद जून 2020 में कॉन्गो ने ऐलान किया कि इबोला आउटब्रेक अब ख़त्म हुआ. मगर करीब आठ महीने बाद 3 फरवरी, 2021 को फिर एक बुरी ख़बर आई. इस रोज़ पूर्वी कॉन्गो में एक महिला की मौत हुई. जांच से पता चला, वो इबोला से मरी थी.
उस महिला के भीतर ये संक्रमण पहुंचा उसके पति के रास्ते. उसके पति को करीब एक साल पहले इबोला हुआ था. इलाज में वो बच तो गया, मगर उसके शरीर से वायरस ख़त्म नहीं हुआ. वो वायरस पिछले करीब 12 महीनों से उसके वीर्य में छुपा बैठा था. सेक्स के दौरान इसी इन्फ़ेक्टेड वीर्य से उसकी पत्नी संक्रमित हुई और मारी गई. WHO के मुताबिक, इबोला वायरस वीर्य के भीतर दो साल तक ख़ुद को ज़िंदा रख सकता है.
अब स्वास्थ्य अधिकारी लोगों को समझाने में लगे हैं. कि जब तक वीर्य की जांच न हो, जब तक उसे वायरस फ्री न माना जाए, तब तक एहतियात बरतें. हालांकि ये एहतियात कितना असरदार है, ये पक्का नहीं. क्योंकि जिस महिला की मौत हुई, उसके पति को इबोला ट्रीटमेंट सेंटर से डिस्चार्ज किए जाते वक़्त पूरी जांच हुई थी. वीर्य का भी टेस्ट किया गया था. इसमें वीर्य वायरस मुक्त पाया गया था. इस नए केस के साथ कॉन्गो में भी फिर से इबोला फैलने लगा है. 1976 से अब तक वहां 12 बार इबोला आउटब्रेक हो चुका है.
कोविड-19 इबोला से नया वायरस है. इसका दायरा बड़ा है. लगभग समूची दुनिया इसकी चपेट में है. शायद इसीलिए कोरोना की वैक्सीन बनाने में रेकॉर्ड तेज़ी दिखाई गई. इसके उलट इबोला ज़्यादातर अफ्रीकी देशों को शिकार बनाता है. ये देश बेहद गरीब हैं. शायद ये भी एक वजह है कि इबोला की वैक्सीन अब तक नहीं बनाई जा सकी है.

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